अफवाह की अंतर्कथाः भयभीत ‘निशंक’ क्यों पैदा कर रहे राजनीतिक अस्थिरता

देहरादूनः निशंक भयभीत हैं! उन्हें आभास हो गया है कि केंद्र की राजनीति उनके अनुकूल नहीं है। उन्होंने केंद्र की राजनीति में खुद को साबित करने के लिए खूब कोशिश की। लेकिन शाह की नजर में निशंक की छवि वहीं है जो एक दशक पहले थी। शाह को रिझाने के लिए निशंक खूब ऐडी चोटी का जोर लगाया लेकिन गुजराती बनिया की पारखी नजर से निशंक कभी बच नहीं पाये। हालांकि राजनीति के चतुर निशंक ने हरिद्वार के एक उद्योगपति बाबा का फायदा लेकर संघ के आशीर्वाद से टीम मोदी का हिस्सा बनने में जरूर कामयाब हुए। इसी कामयाबी के बल पर निशंक ने राज्य की राजनीति में अहसास करवाया कि शाह त्रिवेंद्र से दूर और निशंक के करीब हो चले हैं। बस यहीं से अफवाह की अंतर्कथा लिखी जानी शुरू हुई। निशंक ने बुद्धिबल से अपना जाल फैलाया और त्रिवेंद्र के करीबियों के कंधों पर बंदूक रख फायर कर निष्कंठक होते चले गये। इस रास्ते में अजय भट्ट, तीरथ रावत, अनिल बलूनी, हरक सिंह रावत और सतपाल महाराज जैसे दिग्गज आये। जिन्हें निशंक ने चालाकी से आगे कर खुद के लिए उत्तराखंड की सियासत के बंद होते दरवाजे खुले रखे।
निशंक क्यों भयभीत..?
निशंक इन दिनों काफी परेशान हैं। उनके परेशान होने के अनेक कारण है। भाजपा की राज्यों में एक के बाद एक हो रही पराजय से सबसे ज्यादा भयभीत निशंक है। वह राजनीति के चतुर खिलाड़ी है। वह जानते हैं कि लगातार हो रही भाजपा की पराजय पार्टी को केंद्रीय कैबिनेट में फेरबदल के लिए मजबूर कर देगी और मोदी मंत्री मंडल में उन चहेरों को वरियता दी जायेगी जहां जल्द चुनाव होने वाले है। इस परिस्थिति में निशंक अपने आप को अनफिट पाते हैं। उन्हें अभास हो चुका है कि अमित शाह मानव संसाधन विकास मंत्रालय छीनकर उनकी बलि ले लेंगे। निशंक जानते हैं कि पिछली सरकार में ताकतवर मंत्री रही स्मृति ईरानी की क्या दशा हुई। यही भय निशंक को हर वक्त डराता रहता है। केंद्रीय मंत्री मंडल से अगर उनका पत्ता साफ होता है तो ऐसी दशा में उनके पास राज्य की राजनीति में लौटने का एक मात्र विकल्प बच जाता है। निशंक इस बात को बखूबी समझते हैं लिहाजा वह सुनियोजित तरीके से पार्टी के उन बड़े नामों को मीडिया में उछाल रहे हैं जो मुख्यमंत्री पद की लालसा रखते हैं। निशंक इन नेताओं में बैर करा कर अपने लिए सत्ता का रास्ता साफ कर रहे हैं। जिसमें काफी हद तक वह सफल भी हो चुके हैं। सियासत का यह बिरला सामंत अपने छद्म पैतरे से त्रिवेंद्र सिंह के मनोबल को खंडित करने में लगा है लेकिन मोदी-शाह का सुरक्षा कवच इसके आड़े आ रहा है।
खंडूडी नहीं है त्रिवेंद्र
उत्तराखंड ऐसी कोई सरकार नहीं है जिसमें नेतृत्व परिवर्तन की बयार न चली हो। इस सियासी तूफान में एक ही सरकार मजबूती से डटी रही। जिसे एन.डी.तिवारी हांक रहे थे। तिवारी राजनीति के गूढ़ पुरूष थे। वह जानते थे कि सियासी हिचकोलों में कैसे सत्ता की लगाम पकड़े रखनी है। उन्होंने कार्यकाल पूरा कर बताया कि मिथकों के माथों पर पैर रख कैसे आगे बढ़ा जाता है। तिवारी सरकार के अलावा स्वामी, खंडूडी और बहुगुणा सरकार सियासी उथल-पुथल में धराशाही हो गई। वर्तमान त्रिवेंद्र सरकार के सामने चुनौतियां खड़ी की जा रही है लेकिन परिस्थितियां एकदम जुदा है। त्रिवेंद्र के खिलाफ न तो विधायकों की बगावत है और न ही पार्टी के भीतर नाराजगी। ऐसे में नेतृत्व परिवर्तन करने के पीछे निशंक को जिम्मेदार बताया जा रहा है। निशंक दबाव की राजनीति करने में माहिर हैं। वह दबाव बना कर त्रिवेंद्र को ठिकाने लगाने की फिराक में हैं। ठीक एक दशक पहले निशंक इस तकनीक से खंडूडी को अपदस्थ कर दिया था और खुद प्रदेश की बागडोर संभाली। लेकिन निशंक भूल गये कि त्रिवेंद्र को संघ और मोदी-शाह का आशीर्वाद है। दूसरा खंडूडी के समय विधायक बगावत कर रहे थे लेकिन त्रिवेंद्र के खिलाफ कोई बगावत नहीं है। लेकिन निशंक है कि मानते नहीं।
मीडिया की आड़ में निशंक
निशंक भले ही सीधे तौर पर त्रिवेंद्र के खिलाफ नेतृत्व परिवर्तन का झंडा बुलंद न कर रहे हो लेकिन वह मीडिया की आड़ में सत्ता को चुनौती दे रहे हैं। प्रदेश में मीडिया का एक धड़ा निशंक के इशारों पर त्रिवेद्र के खिलाफ जहर उगल रहा है। हर रोज त्रिवेंद्र के विदार्द गीत लिख कर निंशक की शान के कसीदे पढ़ रहा है। मौसम की वजह से मुख्यमंत्री रूद्रपुर नहीं पहुंच पाये तो सोशल मीडिया ने त्रिवेंद्र की बलि चढ़ाने की घोषण कर दी। एक मीडिया पोर्टल ने आधी रात को घोषणा कर दी कि निशंक अचानक देहरादून पहुंच गये। इन तमाम खबरों के पीछे एक तंत्र सक्रिय है जो त्रिवेंद्र सिंह रावत को सत्ता में नहीं देखना चाहता। जिसे सीधे तौर पर निशंक का समर्थन है और यह मीडिया ग्रुप निशंक के इशारे पर अफवाहों की अतर्कथा लिखने में जुटा है। क्योंकि निशंक को भय कि वह बहुत जल्द शाह का शिकार होने वाले हैं।

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