देहरादून–आम की बौर,कोयल की कूक, जगह-जगह फूल, भँवरे की गुँजन और बसंती बयार । इन सब से मिलकर परिपूर्ण होता है फागुन । लेकिन इन सब के अलावा और भी बहुत कुछ हो इसमें,तो भी अधूरा है फागुन ‘फाग’ के बिना । कुमाऊं की बैठकी होली के गीत सुने तो जाना कि इन्हें कहते हैं ‘फाग’ ।
फिर कन्नौज (उत्तर प्रदेश) के मूल निवासी, इस वक्त देहरादून में हमारे पड़ोसियों को फागुन में कुछ गुनगुनाते हुए सुनते थे, तो पूछा – क्या गा रहे हैं ?
‘फाग’ – वो गुलाब सा खिल कर फिर कुछ गुनगुनाते हैं ।
पर न विस्तार से उन्होंने कभी गाया और ना हम ज्यादा कुछ उनसे सुन पाए । इसरार करने पर कहते हैं – ‘माहौल चाहिए फाग गाने के लिए’ ।
‘इहां कहां’ ? ‘उसके लिए गांव चाहिए,खेत चाहिए, खलिहान चाहिए, गलियाँ चाहिए,आँगन चाहिए और साथ में कोई और गाने वाला भी चाहिए’।
हां, ठीक कहते हैं वो, कि माहौल चाहिए । माहौल बनाने के लिए ही तो ‘रेणु’ यानी फणीश्वर नाथ रेणु कुछ लिखने से पहले अपने लिए भांग घुटवाते होंगे । और जब भांग पी के उठी मन में गुलाबी सी तरंगे, तब ना वह फाग लिखा उन्होंने , जो ‘रेणु’ और ‘भांग’ का दूसरा पर्यायवाची हो गया।
पर सच कहें तो जब तक समझ में नहीं आया तब तक हम पढ़ते चले गए ‘रेणु’ जी का फाग , पर जब कुछ – कुछ समझ में आने लगा तो शर्म से पलकें झुका लीं । सोचने लगे – ‘क्या सच में इस कदर गुलाबी होता है फागुन’ ?
चलिए छोड़िए ! हो सकता है ‘मैला आंचल’ और ‘परती परिकथा’ जैसे क्लासिक के महान रचनाकार फणीश्वर नाथ रेणु के ‘औराही हिंगना’ का वो बैलगाड़ी वाला गांव इतना सुंदर ना रहा हो शायद, जितना हमारे गढ़वाल का वह मेरा गांव ।
समझ सकती हूं कि जिस क्षेत्र में कुदरत अपने धूसर रंग ज्यादा बिखेरती है, वहां के लोग अपने खानपान,पहनावा,गीत-संगीत,चित्रकारी में चमकीला तड़का लगाकर अन्य रंगो की कमी को पूरा करने की कोशिश करते हैं । कठिन सर्दी और भीषण गर्मी के बाद ‘डायन कोसी’ का कहर !
बेचारे गरीब इसी फाग के चटकीले अंदाज से तो अपने दु:खों का रंग हल्का करने की कोशिश करते हैं ।
फागुन में कम फूल खिलते हों शायद फारबिसगंज के आसपास,तो फाग लिखकर शब्दों से कमी पूरी कर दी है उन्होंने प्रकृति के रंगों की ।
हां, मेरे गांव में गेहूं की बालियों से ओस चुराने से शुरू होता था वसंत पंचमी का वह दिन, जब नागफनी के कांटे से पाँच या सात बरस की कन्याओं के नाक-कान छेदे जाते थे । फिर सूजन कम होने तक और उसे संक्रमण से बचाने के लिए सुबह-सुबह ओस की ताजी बूंद डाली जाती थी नाक पर ।
ऐसे ही उस पंचमी जब दोपहर हम फ्यूंली के पीले – पीले फूलों पर बैठे खेल रहे थे, कि ‘नीमा’ मेरी हमउम्र सहेली ने कहा – ‘सुन! तू आज रात को हमारे घर आएगी’ ?
‘रात को’ ?
‘क्यों’ ? मैंने हैरानी से पूछा ।
‘अरे आज रात से हमारे आँगन में गीत लगाए जाएंगे। बहुत दिनों तक रोज सारे गांव की औरतें आएंगी’ । तेरी दीदी, तेरी माँ, चाची सब आएंगे’ । ‘अच्छा’ ?
मुझे तो पता ही ना था इस बारे में इसलिए दिनभर यकीन भी न आ रहा था नीमा की बात का । लेकिन शाम से यकीन आने लगा जब माँ ने खाना जल्दी बना लिया और हम सब को जल्दी-जल्दी खाना खिला कर सो जाने की बात कहने लगीं । मैंने कहा- ‘मैं भी आऊंगी’
‘कहां’ ? – माँ पूछती हैं ।
‘नीमा के घर’ – मैंने कहा
‘अरे इसे कैसे पता’ ? माँ हैरान थी ।
‘नीमा ने बताया माँ, और मुझे भी आने को कहा है’ । ‘अच्छा चल’ – माँ मेरा हाथ पकड़ के ले चलीं ।
और मैं माँ,दोनों चाचियों और दीदी के साथ नीमा के घर की राह पर आगे बढ़ती जा रही ।
नन्ही सी उम्र का यह मेरा पहला अनुभव था रात के अंधेरे में कहीं जाने का । दिन में तो साथ खेलते ही थे,अब आज रात में भी नीमा के साथ खेलने को मिलेगा, सोच कर मन आसमान में था । मैं आकाश की तरफ सितारों को देखते हुए जमीन पर चल रही थी । अंधेरे में भी बिना ठोकर लगे हाथों से हाथ पकड़े हुए बातों -बातों में पहुंच गए हम नीमा के घर ।
वैसे अगर कोई बाहर से गांव में प्रवेश कर रहा है तो सबसे पहले नीमा का ही घर पड़ता था। रात में इस कौतुक का उनके आँगन में जुटने का यही कारण रहा हो शायद , वरना हमारा आँगन तो उसके आंगन से भी बड़ा था । लेकिन गांव भर की इतनी सारी चाची,ताई,दादी,दीदी लोगों को जमघट देखकर अब नीमा का वह आँगन भी खूब बड़ा जान पड़ता था ।
तब एक बात यह भी थी कि नौकरी के कारण कोई गांव से दूर किसी भी शहर में परिवार लेकर रह रहे हैं चाहे,लेकिन तीज-त्यौहार,सर्दी ,गर्मी की छुट्टियों में घर – गाँव वापस आना अनिवार्य रूप से आवश्यक था ।
इसलिए अब नीमा के घर के दो मंजिले में जब मुझे उत्तरकाशी वाली अंजू,विनीता लैंसडाउन वाली इंदु, यमुनानगर वाली रंजू भी मिल गई तो मेरी खुशी का ठिकाना ही ना रहा । यह सभी उम्र में मुझसे थोड़ी बड़ी थी,लेकिन सर्दी,गर्मी की छुट्टियों में यही मेरी सबसे प्यारी सहेलियां बनती थी, इसलिए मैं उन्हें हमेशा नाम लेकर ही बुलाती थी ।
इनके अलावा वहां मेरे चचेरे मामा भी आए थे। अविवाहित थे तब तक । उनके अलावा कोई और पुरूष या युवक वहां नहीं था,इसी से वह दोमंजिले के कोने में कुर्सी लगाकर जरा छुप कर बैठे थे । अब जब सारी औरतें जुट गईं तो नीमा की मां ने ‘थड्या’ गीत और ‘चौंफला’ नाच शुरू करने की घोषणा शुरू कर दी । सब हाथ में हाथ पकड़े हुए गोल घेरे में हौले-हौले नाचते हुए गीत गाना शुरू कर दीं ।
‘माघपंचमी बिटीन,गीतूं मा दिन कटीन’ ।
शुरूआती पक्तियों में ही पता चल गया था कि गीतों की ये महफ़िल माघपंचमी से शुरू होकर बैशाखी तक चलेगी । पहले तो महिलाएं गाती रही और हम बच्चे नीमा के दोमंजिले वाले छज्जे में धमा चौकड़ी मचाते रहे । फिर गीतों का रंग जब जरा जोर पकड़ने लगा तो मामाजी भी खासे उत्साहित होकर किसी युवती को इंगित कर बीच-बीच में हमसे उसके लिए कुछ बातें सिखाकर जोर से कहने को कहते ।
उस युवती का नाम लेकर हम मामा जी की बात दोहरा देते जब, तब गीत, संगीत,नाच के बीच – बीच में हास -परिहास का यह लघु दौर उपस्थित हो जाता । मामा जी और उन युवतियों के बीच वह गीतों में नोकझोंक तब ना समझ आई थी, मगर ‘रेणु’ की कहानी ‘पंचलाइट’ जब पढ़ी तो समझे कि तब मामाजी वहां ‘गोधन’ बने बैठे किसी ‘मुनरी’ के लिए सलीमा या सनीमा का गीत गवा रहे थे हमसे । एक-दो घंटे तक अपने उच्चतम शिखर पर पहुंचने के बाद अब समूह नृत्य और गीत के सुर-ताल बिल्कुल बंद हो जाते रहे ।
केवल गप्पें और हँसी- मजाक की जोर-जोर की आवाजें अंधेरे में आती रहीं । लेकिन फिर अंधेरा चीरते हुए से ये गीतों की मधुर आवाज कहां से आ रही है ? सब कान लगाकर सुन रहे हैं । सारी औरतें कहती हैं – ‘अरे ये तो नदी के उस पार के गांव से आती आवाजें हैं’।
‘और सुनो ! उस गांव की औरतें गीतों ही गीतों में हमारा मजाक उड़ाती हैं कि देखो पहले ही दिन गाते-गाते ही इतनी जल्दी सो गईं पार गाँव की सब औरतें’ ।
अब फिर दुगने उत्साह से औरतों ने एक दूसरे के हाथ थामे और जोर-जोर से कदम की ताल बढ़ाते हुए गीत गाने शुरू कर दिए। अब तो गीतों ही गीतों में इस तरफ की महिलाओं को उस तरफ की महिलाओं ने जवाब देना शुरू कर दिया । नदी के इस पार से उस पार तक हवा में गूँजता गीतों का वह दौर सबसे खूबसूरत था ।
लगता था जैसे कभी खत्म ही ना होगा यह सफर । जमीं पर इधर नीमा के आँगन में कौतुक और विनोद से आनंदित गीतों को बूझने की चाह में पलकों पर बैठी नींद को मसलते हम बच्चे ! उधर आसमाँ में झूमता,ऊंघता चाँद एक ही जगह पर ठहरा, भूल गया हो जैसे रात भर चलकर सुबह तक उस पार पंहुचना ।
इस तरह नौ बजे से शुरू हो रात के लगभग साढ़े बारह बजे तक चलने वाली फागुन की रातों में उस अद्भुत गीत आयोजन में कुछ रोज मैं रोज शामिल हुई । लेकिन फागुन गुजरते ही गाँव के वह दिन भी गुजर गए और फिर मैं हमेशा के लिए शहर में आ गई । गाँव छूटा तो फिर जाने क्यों मेरा वहां दोबारा जाना ही ना हो पाया । हां,मेरे भाई-बहन जरूर गाँव आते-जाते रहे ।अब वही लोग बताते हैं कि गाँव के सब लोग शहरों में बस गए हैं ।
गांव अब उजाड़ हो गए हैं । पर मैं जब कभी वापस जा ही नहीं पायी तो कैसे मान लूं कि गांव उजड़ गए हैं ? इसलिए मन है कि अभी भी उस कौतुक को ढूंढते हुए पहुंच जाता है नीमा की आंगन के उसी दोमंजिले छज्जे पर,जहां कोई सीढ़ी अब जाती ही नहीं । खुशनसीबी अब बस इतने में ही जानते हैं कि हम उस पीढ़ी के आखिरी लोग हैं शायद, जिन्होंने वह ‘फाग’ सुने हैं, जिनकी कोई लिपि,कोई शब्द हमने कहीं पढ़ा नहीं ! मगर याद है ज्यों का त्यों दिलो- दिमाग पर ।
फागुन पूर्णिमा की रात होलिका की चिता से उठती लपटें चाँद के ‘शरारा’ सी लगती हैं मुझे । फगुनाया चाँद देखकर और भी किस,किस को जाने क्या-क्या याद आता होगा । मगर चाँद मेरे हमजोली ! मुझको याद आता है वो ‘फाग’, जो कब के छूटा कहीं मेरे गाँव में, पर फागुन में हमेशा थाप देता है यादों के मंजीरे पर, दूर से आती ढ़ोल की आवाज की तरह।।
प्रतिभा नैथानी की कलम से ।